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स्वर अभी भी गूंजते हैं…

लोकतंत्र
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स्वर अभी भी गूँजते हैं ।

 

फूटे थे कोमल अधरों से बन कर राग

आग्रही प्रेम के गीतों में ढल

स्वप्नों के रंगों से रंजित मोह जाल

निशा निमंत्रण बन कर गूँजे थे।

 

वे घृणित हुए थे दंभ भरे

समझे थे नश्वर को सत्य

अपमान भरे विष प्यालों से

बेध कोई हृदय निकले थे ।

 

असीम वेदना के भी वाहक

रुक रुक कर करुण पुकार बने

वे आर्द्र थे उस संध्या को

लगते थे स्वयं में डूबे ।

 

आज भी इतने समय बाद

और भी अनगिन रूपों में

उल्लसित, शांत, करुण, …

वे स्वर अभी भी गूँजते हैं…!

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