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जनविद्रोह जगा डाला…

लोकतंत्र
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यह तुमने क्या कर डाला …?

विश्वास हमारा था तुम पर

पर तुमने चालें चल-चल कर

हमको ही छल डाला !

 

ओ शासक !

हमने तुमको मंदिर में बैठाया

माना फल दुआ का

लेकिन तुमने, सब निष्फल कर डाला !

 

अब देखो …

वे लिए मशालें आते हैं –

हुंकारों से, आकाश गुंजाते हैं

तुमने जनविद्रोह जगा डाला !

 

क्या कह कर तुम माफी मँगोगे

कितनों के आँसू पोंछोगे

तुमने तो मीठे तालाबों को

खारा-खारा कर डाला ।

 

यह चमन हमारा अपना था

उजड़ा-उजड़ा अब दिखता  है

तुमने तो अपनी ही मिट्टी में

विष का बीज  लगा डाला ।

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