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मृत्यु

लोकतंत्र
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मृत्यु की अनजान गहराईयों में

खो जाते हैं सभी एक दिन ।

 

रह जाती हैं यादें – मुठ्ठी भर

और स्वप्नों की राख़ उड़ती फिरती है ।

 

आँसू बन कुछ हृदय पिघल जाते हैं

कुछ सिसकारियाँ चारों ओर फैल जाती हैं ।

 

हर ओर सजती हैं सहमी अर्थियाँ

फिर भी जीवन के पल लंबे लगते हैं !

 

न जाने कहाँ खो जाते हैं जाने वाले …

ये प्रश्न हमेशा अनुत्तरित ही रह जाते हैं !

 

इन गहरी निद्राओं के पार क्या है ?

पल भर सोच सब आगे बढ़ जाते हैं !

 

सब छायाएँ हैं – या कि सत्य कोई

अभी कल थे सभी, न आज कोई ।

 

जीवन रहस्यमय कुहासा तो मृत्यु अनजान अंधेरा

सब स्वयं ही इनमें गुम होते जाते हैं !

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