लोकतंत्र
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चाहती है रात्रि कि जाग जाए चिंगारी वह
जो सोयी हुई है अनजान – निश्चल ।
बने ज्वाला और उठे गगन में प्रातः
और तपिश दे इतनी कि पिघल उठें पाषाण …।
फिर ढाले नए सांचे में दिन वह द्रव ले
तपा कर गर्म दोपहरी में ।
सांझ को सौंप दे भर शक्ति अंग अंग में
और अगली रात्रि, जागे वह बन प्रहरी !
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