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याचक – एक कहानी

लोकतंत्र
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बहुत साल हुए, बीसवीं सदी का शुरुआती दौर था. उत्तर भारत के इटावा जिले में यमुना के किनारे बसा एक गाँव था, जसलोकपुर । आबादी होगी यही कोई ढाई-तीन सौ की। भरा पूरा गाँव था, लहलहाते खेत थे और लोग मेहनती थे । गाँव के मुखिया का नाम था चौधरी रघुराज सिंह । लोग मुखिया के काम काज से खुश थे और ज़िंदगी अच्छी खासी चल रही थी। यह वह समय था जब रेलगाड़ी उस इलाक़े में चलने लगी थी – नज़दीकी स्टेशन करीब पाँच कोस पर था, लेकिन, बिजली का कोई पता न था। पानी कुएं से आता था और बैल बड़ी भारी संपत्ति थे । यह वह समय भी था जब आधुनिक खड़ी बोली साहित्य और जन संपर्क में प्रचलित हो रही थी। पर गाँव में तो आने वाले सौ साल तक भी मीठी देहाती भाषा ही राज करने वाली थी।

मुखिया का घर काफी बड़ा था। बाहर चबूतरे पर नीम का बड़ा पेड़ था। नीम की पत्तियां चारों ओर फैली रहती थीं। बच्चे छोटी छोटी टहनियों से झाड़ू बना कर सफाई करने का खेल खेलते थे… चबूतरे के अंदरूनी हिस्से पर छप्परनुमा लंबी छाया की गई थी और फिर एक ऊँची सी देहरी थी। उस देहरी के पार लंबा गलियारा और फिर कुंआ था। कुंए बाद आँगन का दरवाज़ा और आँगन के चारों ओर पुरखों का बड़ा सा घर फैला था।

होली के पहले मुखिया अक्सर नीम के नीचे दोपहरी में बैठ गाँव भर के आने जाने वाले से खोज खबर लेता था। खेत का काम तो सुबह सबेरे ही ख़त्म हो जाता था। गर्मियों की दोपहरी घर के कुंए के पास खटिया पर ही कटती थी।
इस बार की होली की तैयारी चल रही थी।

 

“ओ मुखिया, राम-राम!”
“राम-राम, काए जीवन, कहाँ जाय रए हौ?”
“कऊं नईं मुखिया, तुमईं से काम हतो”

 

जीवन को मुखिया से उधारी चाहिए थी, मुखिया ने हामी भर दी। जीवन की बेटी की शादी थी। गर्मी में । बात आई गई हो गई। मुखिया ने हाँ कर दी तो जीवन भी निश्चिंत हो गया।

पर समय ने पलटी खाई। काल चक्र तेजी से घूमा। मुखिया के बेटे ने काँग्रेस के किसी जलूस में हिस्सा लिया था। अंग्रेज़ अफसर नाराज़ था। घर पर दबिश पड़ी। मुखिया रुपये पैसे से कमज़ोर पड़ गया। तभी जीवन को धन की जरूरत पड़ी और वह संकोच के साथ मुखिया के पास पहुंचा। गाँव भर को पता था कि मुखिया के पास जमीन में गड़ा अपार धन है – पुरखों का। मुखिया ने किसी को खाली हाथ नहीं भेजा द्वारे से कभी। पर अंग्रेज़ अफसर के छापे के बाद मुखिया चुप-चुप था। जीवन जब आया तो मुखिया कुछ बोला नहीं । मुखिया को डर था कि अगर इतनी जल्दी उसने जीवन को कुछ दिया तो अंग्रेज़ों को पता चल जाएगा और फिर उसके घर की खुदाई भी होगी – गड़े हुए धन की तलाश में । लेकिन बात जीवन की बेटी के ब्याह की थी। अजीब धर्म संकट था… जीवन को इस खामोशी को सुनने की उम्मीद सपने में भी नहीं थी। वह मुखिया की परिस्थिति न समझ सका। उसके पास कोई और रास्ता भी न था।

जीवन रुका नहीं, चुपचाप वापस लौट गया। मुखिया उहा-पोह में पूरी रात आँगन में चक्कर लगाता रहा।

सुबह चारों तरफ कोहराम था। जीवन ने गाँव के पास वाली नहर में कूद कर जान दे दी थी। लाश एक मील दूर मिली थी। यह खबर सुन जीवन की बेटी खेत के पास वाले सूखे कुएं में कूद कर मर मिटी। ज़िंदगी ने एक अजीब करवट ले ली थी। मुखिया को जैसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। वह सिर झुकाये बैठा रहा। मुखिया के बेटे ने जीवन के परिवार को संभाला । किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्यों हुआ। पैसे की बात केवल मुखिया और जीवन के बीच थी। अब मुखिया किसी से कुछ कहे भी तो क्या, बस खुद को कोसता रहता था। उसे काँग्रेस वालों पर भी बहुत क्रोध था। उसके बेटे को बरगलाया जो था उन्होंने…।

काल चक्र फिर घूमा। मुखिया के दिन सुधरे…जीवन के लड़के को मुखिया ने शहर भेज कर पढ़ाया। अपने बेटे के जैसा माना। जीवन की पत्नी मुखिया को अपने बड़े भाई जैसा मानती थी। पर मुखिया का मन अंदर से टूट चुका था।

कुछ साल बाद मुखिया की बेटी ब्याह के योग्य हुई। मुखिया ने इस बात का ख्याल रखा कि ज्यादा धूम धाम न मचाई जाये। खर्चा कम रखा उसने। फिर भी उसे बड़ा मन था कि बिटिया को कुछ अच्छे पुराने सोने के जेवर दे। इसलिए उसने अपने पीछे वाले कोठरे में गड़े एक मटके को निकालने की सोची। एक दोपहरी वह कोठरी का द्वार अंदर से बंद कर खुदाई करने जा पहुँचा । मशाल की रोशनी में जैसे ही उसने जमीन पर कुदाल की पहली चोट की तो सन्न से रह गया … सामने एक बड़ा सा काला नाग फन उठाए था….मुखिया पुरानी बातों को मानता था। कहते थे कि अगर गाड़े गए धन के पास साँप दिखे तो धन को छोड़ देना चाहिए। ऐसा धन फिर अपना नहीं रहता। पर बेटी के ब्याह का लालच था…मन में कितनी हुलास थी! मुखिया ने साँप को किसी तरह भगाया और जमीन खोदकर मटके में से कुछ पुराना सोना निकाल ही लिया।
बात आई गई हो गई। शादी का दिन आया और फिर देखते ही देखते बिटिया की बिदाई भी हो गई। मुखिया खुश था। आज उसे पहली बार जीवन के मरने की बात सता नहीं रही थी।

Yachak_01px250बेटी के ब्याह के बाद करीब एक महीना हो गया था। अमावस की रात थी। मुखिया चैन से बाहर वाले चबूतरे पर छप्पर के नीच खटिया पर लेट गया। आँख लग गई। लेकिन थोड़ी ही देर में नींद टूट गई। वह उठ बैठा और यूँ ही चहल कदमी के ख्याल से पैर जमीन पर रखे तो नीचे कुछ अजीब सी हरकत हुई और फिर दंश लगा।


मुखिया ने एक काले नाग को दिये की लौ में दूर जाते देखा। उसने आवाज लगाई… घर वाले दौड़े आए। वैद्य जी को बुलाया। पर मुखिया को पता था। समय पूरा हो गया था। मुखिया ने बेटे को बुलाकर कुछ बताने की कोशिश की पर तब तक गला रूँध चुका था। थोड़ी देर में प्राण पखेरू उड़ चले।

मुखिया के बेटे चंदर ने घर और खेती बारी संभाल ली। जब मुखिया के बेटे के जीवन की साँझ आई तो उसने घर को तुड़वा कर नया पक्का मकान बनवाया। शहर अब गाँव के नज़दीक आ चुका था। उसका खुद का बेटा प्रकाश अब बड़ा हो चुका था। प्रकाश का खेती बारी में मन नहीं था। उसने एक शक्कर की मिल खोल ली। परिवार सम्पन्न से और सम्पन्न हो रहा था।

इस बीच जीवन के बेटे का भी घर बसा – उसकी संतान भी तरक्की की राह पर चल रही थी। शहर में उन्होंने अपना मकान बनवा लिया था।

प्रकाश का एक बेटा था। उसका नाम था रोहन। रोहन यही कोई चार साल का था जब वह घर के पिछवाड़े खेल रहा था। उसी समय एक सन्यासी उधर से गुजरा। रोहन को अकेला खेलते देख उसने उसे अपने पास बुलाया। थोड़ी देर मीठी मीठी बात की तो बच्चा उस सन्यासी से खुल गया। तब सन्यासी बोला “बेटा मेरा एक मटका उस ओर मिट्टी के ढेर के पीछे पड़ा है, जरा तू उठा ला। रोहन दौड़ते हुए गया और मटका उठा लाया।

“अरे बाबा, यह तो बड़ा पुराना है, क्या है इसमें?” “कुछ नहीं बेटा बस कुछ पुराना सामान है।“
“मैं पापा को बुलाऊँ क्या?”
“नहीं रहने दे बेटा, भगवान तेरा भला करे।”

सन्यासी चला गया। रोहन ने भी अपने माता पिता को कुछ नहीं बताया।

बरस पर बरस बीतते गए। समय जाते देर नहीं लगती। रोहन पढ़ लिख कर बड़ा हुआ। उसका भी विवाह हुआ। फिर कुछ समय बाद उसके घर एक बेटे का जन्म हुआ। रोहन और उसकी पत्नी विभा ने अपने बेटे का नाम वैभव रखा।

जीवन के पोते के बेटे का नाम नयन था। नयन की पत्नी मुक्ता कॉलेज में प्रोफेसर थी। उनकी एक बेटी हुई। जिसका नाम उन्होंने तारा रखा। एक दिन जब तारा करीब बारह साल की थी तो एक वृद्ध सन्यासी मुक्ता के पास आया। घर में नयन नहीं था। सन्यासी बोला “ बेटी, तेरे परिवार की एक संपत्ति तेरे पुरखों के खेत पर दबी है। पति को कह कर गाँव जाना और खेत के पास वाले सूखे कुंए से निकाल लेना।“ इतना कह कर सन्यासी चला गया। जब नयन घर आया तो मुक्ता ने उसे पूरी बात बताई। नयन को माने में नहीं आया। फिर भी अगले महीने वह गाँव आया और कुंए में से सन्यासी के कहे अनुसार खोज कराई तो एक मटका मिला। नयन ने जब मटका खोला तो उसमें से पुराने जेवर निकले। मटके में एक हाथ से लिखा पुराना कागज भी मिला जिसमें लिखा था “बेटा यह धन तुम्हारा तब तक है जब तक तुम्हारी बेटी बड़ी नहीं हो जाती। जब बिटिया बड़ी हो जाये तो यह जेवर उसकी शादी में दे देना” जीवन का परपोता नयन चुपचाप मटका लेकर शहर लौट आया।

समय के साथ तारा बड़ी हुई और सुंदर एवं गुणी बनी। उसने डॉ बनने का सपना देखा था जो पूरा भी हुआ। आँखों की डॉ बनी तारा । तारा की मुलाकात वहीं मेडिकल कॉलेज में डॉ वैभव से हुई। दोनों में प्रेम हुआ और बात शादी तक पहुँची। तब पता चला कि दोनों परिवार पहिले से ही एक दूसरे को जानने वाले थे। बस संपर्क सूत्र कम थे। शादी पर नयन और मुक्ता ने पुराने जेवर तारा को दिये जाने की बात की तो वैभव ने मना कर दिया। कहा कि नहीं, मैं यह सब नहीं ले सकता। लेकिन नयन का बहुत मन था। उसने सन्यासी वाली पूरी घटना वैभव के पिता रोहन को सुनाई।

रोहन ने पहिले तो वैभव पर दबाव डालने से माना किया, फिर कुछ सोच उसने सबको विदा कर अगले दिन बात करने को कहा। रोहन ने अपने परदादा के साँप के द्वारा काटे जाने की बात सुनी थी और उसे पता था कि उसके घर के नीचे कोई पुरखों का धन था। रोहन को यह भी पता था कि नयन के परदादा की असमय मृत्यु हुई थी। लेकिन अब नयन की बात ने उसे अचंभित कर दिया। उसे थोड़ा-थोड़ा याद हो आया कि कैसे बचपन में एक सन्यासी उसी के घर से उसी के हाथों से एक मटका माँग कर ले गया था। रोहन काफी देर तक सोचता रहा… फिर उसकी आँख लग गई। भरी दोपहरी अचानक रोहन चौंक कर उठ बैठा। एक अजीबोगरीब स्वप्न देखा उसने। नयन को फोन लगाया और पूछा कि क्या वह उस सन्यासी से मिला सकता है। नयन ने कहा कि वह सन्यासी का पता नहीं जानता था। सन्यासी तो मुक्ता से ही मिला था। और फिर कभी नहीं लौटा.

रोहन का मन विचलित था। उसने वैभव से बात की और कहा “बेटा आज नियति का चक्र पूरा होना चाहता है, तू तारा के माता पिता द्वारा दिये जाने वाले जेवर स्वीकार कर ले…तारा का भी मन रहेगा और मेरे परदादा का भी… और मेरा भी।“

“आपकी और तारा की बात तो समझ में आती है पर आपको आपके परदादा के मन के बारे में कैसे पता?” वैभव ने पूछा…
 रोहन चुप ही रहा, कुछ कहा नहीं ।“ठीक है। आप जैसा कहें।“ नयन न जाने क्यों इतनी आसानी से मान गया। उसे अपने पिता की आवाज़ में एक गहराई और आँखों में एक अजीब सी बात दिखी।

तारा शादी कर रोहन के बेटे की पत्नी बन कर घर आई तो रोहन के हृदय में उठती बेचैनी शांत हो गई। उसने तारा से माँग कर सन्यासी के दिये जेवर देखे तो उसकी आँखों से आंसू बह निकले। जैसे कि पीढ़ियों बाद कोई कहानी पूरी हो गई।
 

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