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समय ! तेरे अजस्र प्रवाह में –
गुजरते पलों की गहराईयों में,
मैं न जाने कहाँ से कहाँ…
चला आया हूँ ।
मैं खोजता रहा शांति कभी,
और फिर क्षोभ ज्वार मॆं डूब,
कभी किसी पदचाप को सुन –
अनजानी नींदों से जागा हूँ ।
सत्य साधक बना कभी,
फिर व्यथित सा अकथ्य कथा बना,
कुछ आँसू ढुलका…
न जाने किसे बुलाता रहा हूँ ।
तू काल ! चलता रहा संग,
मैं तेरे अनजान आयामों में –
करता अनगिनत उपाय,
तुझे खोजता रहा हूँ ।
मैं जीवन के वैरागी क्षणों में,
अनुभूति को ‘परा’ की ओर से –
खींच कर जाने अनजाने,
नए आवरण ओढ़ता रहा हूँ ।
नए सूर्यों को हर सबेरे,
बिखेरते अपनी लालिमा और कांति,
हर सांझ डूबते, खो जाते देखता –
निःशब्द निर्जनों में घूमता रहा हूँ ।
मैं करता रहा हास,
फिर रूक कर अचानक किसी पल,
समय ! तेरी डोर खींचने को,
विचारों मॆं लड़ता रहा हूँ ।
मैं मन्द शीतल हवाओं में,
छोटी सी कुटी छा,
हर सांझ नितांत अकेला,
तूफानों को स्वप्न करता रहा हूँ ।
समय ! तेरे हास के अर्थ –
जान कर भी न जाने क्यों…
हर दिन जाने अनजाने…
नए नए बिम्बों में ढलता रहा हूँ ।
मैं छायाओं को अपना समझ,
घुल मिलकर संग गीत कहते,
फिर उनके बढते आकार …
यकायक विलीन होते देखता रहा हूँ ।
कभी बना तू कराल,
या तुझे बनाकर अपनी ढाल,
तू मेरे संग या मैं तेरे –
मैं यह सूत्र खोजता रहा हूँ ।
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