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हे ईश्वर … क्या न तेरा अस्तित्व मिथ्या ?

लोकतंत्र
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हे ईश्वर !

खोजता तुझे आज मैं साकार ।

 

करता जगत जब हाहाकार

तेरे रूप में होता विकार ।

 

तर्क के तीव्र बाणों से

जब बींधता हृदय काल

तब तेरे अस्तित्व का

दिखता मुझे अकाल ।

 

सत्य और चेतना के द्वार

खोल जब झाँकता

दिखता है मुझे क्यों

इस जगत का दीन आकार ?

 

धारित्री के सुखों का
उदघोष कर्म का सिद्धांत
बना दिखता है मुझे
हर प्राण में क्लांत ।

 

तब उठा इस दीनता के

प्रतीक  को जो है म्लान

क्यों न फेंकता है

हे जगत के मान !

 

सृष्टि को देकर आकार

क्या न आया तुझमें विकार ?

इच्छा रहित हे अविकार

क्या सृष्टि हुई अनिच्छित साकार ?

 

कर्म का फल यदि जीवन

तो कह किस कर्म हित प्रथम जीवन !

यों पूछता जब मुझसे मेरा मन

तो होता मेरे हृदय में कंपन !

 

सब माया है

तो सत्य है क्या ?

है जगत असत्य यदि

तो क्या न जगत विचार मिथ्या ?

 

तू भी विचार जगत का ही …

तो क्या न तेरा अस्तित्व मिथ्या !

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