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पिघल उठी मंदिर की मूरत

लोकतंत्र
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शांत, स्निग्ध, और दिव्य आभा से पूर्ण थी मंदिर की वह मूरत ।

 

विकल हृदय ले दर्शन करने आने वाले शांत हृदय ले वापस जाते थे ।

 

पर उस प्रातः घटित हुआ वह अकल्पित … ।

 

वे मंदिर को जाने वाले पग वापस दौड़े आते थे ।

 

पिघल उठी थी जगती की घृणा से मंदिर की वह मूरत ।

 

और बन अपार समुद्र पथ  पर बहती आती थी ।

 

क्यों हुआ, क्यों हुआ – मूरत का शांत हृदय विकृत ?

 

जन धारा पथ पर यही सोचती भागी जाती थी ।

 

कोई न बचता था उस प्रवाह से सब नष्ट हुआ जाता था ।

 

समस्त जगत का आक्रोश मानो वहाँ अभिव्यक्ति पाता था ।

 

उस धारा के गर्जन से हृदय काँप काँप रह जाता था ।

 

नहीं-नहीं अब कुछ न बचेगा, यह सोच मन डूबा जाता था ।

 

पर तभी हुआ सब कुछ परिवर्तित…  ।

 

वह विकराल दृश्य अब नज़र न आता था ।

 

स्वप्न था – दुःस्वप्न था यह सोच मन संतुष्टि पाता था ।

 

पर क्यों दिखा यह स्वप्न – क्या यही भविष्य सभ्यता का ?

 

देव भी जब सह न सकेंगे गरल मनुज मन का !

 

ढह जाएँगे क्या विश्वास सारे जन मन के ?

 

क्या प्रलय के दृश्य होंगे साक्षी अंततः सृष्टि के !

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