- 44 Posts
- 644 Comments
शांत, स्निग्ध, और दिव्य आभा से पूर्ण थी मंदिर की वह मूरत ।
विकल हृदय ले दर्शन करने आने वाले शांत हृदय ले वापस जाते थे ।
पर उस प्रातः घटित हुआ वह अकल्पित … ।
वे मंदिर को जाने वाले पग वापस दौड़े आते थे ।
पिघल उठी थी जगती की घृणा से मंदिर की वह मूरत ।
और बन अपार समुद्र पथ पर बहती आती थी ।
क्यों हुआ, क्यों हुआ – मूरत का शांत हृदय विकृत ?
जन धारा पथ पर यही सोचती भागी जाती थी ।
कोई न बचता था उस प्रवाह से सब नष्ट हुआ जाता था ।
समस्त जगत का आक्रोश मानो वहाँ अभिव्यक्ति पाता था ।
उस धारा के गर्जन से हृदय काँप काँप रह जाता था ।
नहीं-नहीं अब कुछ न बचेगा, यह सोच मन डूबा जाता था ।
पर तभी हुआ सब कुछ परिवर्तित… ।
वह विकराल दृश्य अब नज़र न आता था ।
स्वप्न था – दुःस्वप्न था यह सोच मन संतुष्टि पाता था ।
पर क्यों दिखा यह स्वप्न – क्या यही भविष्य सभ्यता का ?
देव भी जब सह न सकेंगे गरल मनुज मन का !
ढह जाएँगे क्या विश्वास सारे जन मन के ?
क्या प्रलय के दृश्य होंगे साक्षी अंततः सृष्टि के !
Read Comments