लोकतंत्र
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मैंने तो बहुत चाहा था
कि तुम्हें रोक लेता उस शाम
पर मन की बात
होठों तक आ न सकी |
काश कि तुमने देखा होता
मेरी आँखों में
ठहर कर दो पल
बस दो पल |
मैंने चाहा था
उस दोपहरी
जब सड़कें भी बिलकुल सुनीं थीं
की खटकाओ तुम द्वार मेरा |
और आकर बैठो
चुप-चाप
कुछ पल
मेरे आँगन में |
मेरे ये सपने रखे हैं
अभी भी वैसे ही
अनछुए…
तुम्हारे लिए – बस तुम्हारे लिए |
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