लोकतंत्र
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ओ सपनों के सौदागर तू दूर देश से आ जा,
मेरी अकेली रातों को कुछ स्वप्न बीज दे जा |
जब गहराए धरा पर काला अमिट अँधेरा
तब रोपा जाये निशा भूमि में स्वप्न बीज मेरा |
स्वप्नों के नन्हे पौधे निकलें चांदनी के पोषे ,
और झूम हवा में फिर उनमें तारासम कलियाँ नन्हीं फूटें |
हों अनगिन व्यापार फिर उन स्वप्न वृक्षों की छांवों में ,
टूटें मन, दुःखी तन और टीस उठे फिर घावों में |
कभी उदास फिर हास उलास अरु आश निराश का हो फेरा,
तो कभी चमकीली आँखें ले चिड़ियाँ आ डालें डेरा |
पर सजल हों न आँखें मेरी जब उठे नींद का डोला ,
ओ सपनों के सौदागर, लगा तू, ऐसे सपनों का मेला |
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