लोकतंत्र
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अकथ्य कथा बने तुम कब तक चलते जाओगे –
कब तक यूँ स्वप्नों की गठरी ले मन को भटकाओगे ?
मैं देख रहा सितारे कब से – ये यूँ ही चमक रहे –
तुम कब तक इनकी चाह लिए ऊँचे चढ़ते जाओगे !
ये देखो मेघ घुमड़-घुमड़ कर धरती पर बरस चले…
कुछ बूँदों को पा कर पत्ते देखो कैसे चमके !
फिर भी तुम, इन सबके बीच, चुपचाप चले जाओगे –
आकांक्षाओं के बोझ तले कब तक खुद को तरसाओगे ?
थोड़े से आँसू और थोड़ी सी खिली हुई हँसी…
इन सबको ठुकरा कर अब तुम कितना पाओगे ?
बोलो कब तक तुम यूँ ही व्यथित रहोगे –
थोड़ा हँस के देखो अद्भुत सुख पाओगे !
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