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एक संध्या…

लोकतंत्र
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एक संध्या वह विस्तृत नभ ठहर गया आँखों में ,
छोटे-छोटे पंख लगा मन छोड़ चला तन को,
तब फूट पड़े गीत कोई रस घोल गया कर्णों में ,
रंगों भरे बादल पर बैठ लगी धरा मधुर उसको |
उड़ते-उड़ते दिख गए उसको चमकीले नयन कोई,
किसी मधुर आभा का आमंत्रण ले गया खींच कहीं |
वह भटक-भटक कर भी रस विभोर उड़ता गया ,
इन्द्रधनुषी रंगों से स्वप्नों को भर खो गया कहीं |

 

एक संध्या कुछ बूँदें टपक पड़ीं नभ से ,
तो पूछ लिया कैसी हो धीरे से धरा ने ?
वे मुस्कुरा पड़ीं और फ़ैल गयी सोंधी महक हवा में…
उसी संध्या लुढ़के कुछ अश्रु नयनों से –
वे खारे थे, न किसी के अपने, अनजाने रह गए,
पर स्वप्न सजीले थे, रुक न सके रोके, रंगों से फ़ैल गए|
उन गीली आँखों में भी वे नौका बन तैर गए
चुनते रहे उस रात वे ओस की बूंदों को |

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