लोकतंत्र
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फिर खिल उठे फूल,
और मुस्कुरा दी धूप,
जानते हो कैसे ?
कोइ हँस पड़ा हो जैसे !
रुक गयी हैं सिसकियाँ,
और सूख गए आँसू,
सोचो जरा फिर से –
बादल बरस चुके हों जैसे !
खुले हुए नयन –
झपक गए हों जैसे,
बादल घिर गए हैं ऐसे,
सूरज छुप गया है ऐसे |
फिर बह चली यह नौका,
लो उठी फिर तरंगें,
पग बढ़ चले हों जैसे,
मन खिल उठा हो जैसे |
आ पडी हैं कुछ बूँदें –
सूखी हुई धरा पर
सुन कर नए गीत ,
गुनगुना पड़ा मन ऐसे !
छू गयी उंगलियाँ जब
थिरक उठे कदम यूं
पंछी उड़ चले हों जैसे
उपवन झूम उठा हो जैसे …!
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