लोकतंत्र
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मैं खोजता तुम्हें रहा…
पर तुम मिली न मुझको |
काश तुम मिलती तो बताता
कल शाम बादलों में कितने रंग घुले थे !
मैं जब सुबह नदी के इस पार उतरा
तब वह किनारा कितनी… दूर था !
कि गुब्बारे जो बचपन में हमने देखे
उनके रंग अभी भी उतने ही प्यारे हैं |
और चाँद को देखकर अभी भी बच्चे
कहानियाँ गुनते हैं |
पर तुम न मिली
मैंने कितना खोजा हर रोज़ तुम्हें …!
आज शाम फिर नदी के किनारे
मैं अकेला ही गया |
धीमे धीमे शाम ढल गयी
और मैं चुपचाप बैठा रहा |
फिर नदी के पानी में
चाँद की छवि उतर आई |
मुझे लगा तुम भी कहीं बैठी होगी
नदी के किनारे …|
मैंने छोड़ दी एक नाव कागज़ की
पानी में धीरे से |
पहुंचे जो तुम तक
तो जान लेना – खोज रहा हूँ मैं तुम्हें यहाँ …|
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