लोकतंत्र
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वह आज चुप बैठी रही
सुबह से – जब उसने दूध गर्म करने को चढाया |
दूध गर्म हुआ, उफान आया, और फ़ैल गया
वह न उठी |
छोटा बच्चा उसके पास आया – वह भूखा था
वह न उठी |
पति ने खाना माँगा
वह खड़ा रहा कुछ देर, और फिर चला गया |
बच्चा भूख से कुछ देर रोया, और फिर सो गया
सूरज धीरे-धीरे आसमान में चढ़ा और ढल गया |
पर वह यूं ही बैठी रही – चुपचाप
वह सोचती रही न जाने क्या – कहीं मानो उलझ गयी !
घर भी चुप है
दीवारें सहमी सी हैं |
शाम हो गयी है
बच्चा जग गया है और माँ के पास बैठा है |
पति लौट आया है
वह भी पास ही बैठा है |
सब इंतज़ार में हैं
की फिर बहने लगे प्यार का वह दरिया |
सब इंतज़ार में हैं
कि पिघल जाए वह ठहराव; और मिले मीठा अहसास सबको जिन्दगी का |
कि वह उठ जाए और चूल्हा फिर जले
फिर घर बोल उठे |
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