लोकतंत्र
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जाओ छोड़ो भी
अब न सुनुँगा मैं कुछ भी
क्यों पिछली बारिश में तुमने
मेरी सीमाओं को तोड़ा था …?
चंचल हो पर इसका यह मतलब तो नहीं
कि छोड़ दो तुम तटिनी कहलाना
मेघों को धरा से ही देखो
इस बार फिर भटक ना जाना।
ये बारिश है ही ऎसी
रोक न पाती मैं खुद को
जीवन का रस सुमधुर
हे तट मैं क्या करूं!
मैं नदी – प्यास बुझाती
पर फिर भी मैं जल की प्यासी
मत रूठो; लौट तो आती हूँ
इस बार दूर न जाऊंगी ॥
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