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काल का शांत अविचल प्रवाह
सहसा विकलता क्यों उत्पन्न करने लगा !
हे देव ! जीवन, जो कि उन्मुख था सदैव शांति की ओर
क्यों निशा के अंधकार में भटकने लगा !
वे झंझावात जो चुपचाप चले जाते थे बिना छेड़े
क्यों अट्टहास कर आने लगे !
शांत सुखद निद्राओं को आकर अब
स्वप्न क्यों जगाने लगे !
खण्डहरों की पुरानी प्राचीरें जब यह पूछने लगीं
तो राह से गुजरते मेघ चुप न रह सके ।
वे बोल पड़े – तुम अतीत हो, सोती रहो
मत पूछो इन कठिन प्रश्नों के उत्तर ।
छायी रही कुछ देर नीरवता
फिर कुछ सोच मेघ बोले –
जब धरती के हृदय में तीव्र पीड़ा हो
तब कौन शांति से सो सकता है ?
जब वर्तमान हो धूमिल
तब गत वैभव की याद सताती है ।
सोती आत्माओं को हृदय की व्यथा
रो-रो कर बुलाती है ।
फिर देव भी तो सोते हैं अब
कितनी ही चीत्कारें उन्हें व्यर्थ ही बुलातीं – वे न आते ।
तुम अतीत हो – अपनी हो
धरती को तुम्हारी याद आती है ।
तुम शायद न जानती होगी –
मैंने देखा था कल रात्रि के अंधरे में ।
गंगा की धारा पुराना पाटलिपुत्र खोजती थी
न मिला तो ठहर सी गई – थम गया वेग उसका ।
सच कितना विषम काल है यह
न जाने कब उगेगा पूर्व में सूर्य वह !
जब उठ खड़े होंगे नए प्रहरी हर दिशा से
भारत की धरती पर कर्मयोद्धा विजयघोष करते देखे जाएँगे।
तुम भी करो प्रार्थना रात्रि के अंधेरों में खड़ी
कि चमके आकाश में फिर राष्ट्र के सौभाग्य का सितारा ।
फिर सो सकोगी तुम शांति से –
ओ अतीत की प्रहरी !
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