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मैं भारत हूँ !

लोकतंत्र
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क्रांति की आवाज़ मानवीय संवेदनाओं पर होता नित निर्मम प्रहार,

सीधे चलता जन निर्बल माना जाता,

रौंदा जाता जनमत  प्रतिदिन…,

यह कैसा लोकतंत्र – यह कैसा शासन ?

 

 

 

सत्ता के आगारों में शासक चुप क्यों बैठा,

जनता हर रोज नए सवालों संग आती है –

क्या आक्रोश चाहिए इतना कि उठ जाये ज्वाला,

पिघलेगा पाषाण हृदय  तब भी , या तू चाहे विष का प्याला …?

 

 

वर्ष हजारों बिता-बिता कर,

सहज हुई जन चेतनता,

न उभरेगी तेरे सामने बन कर काल कठिन झंझानिल,  

ऐसी तेरी सोच बनी क्या ?

 

 

सौंपी बागडोर तुझको,

सदियों का विश्वास दिया …,

जन प्रतिनिधि बन क्यों है लूटता,

ऐसी क्या थी, जो पी ली तूने, सत्ता मद हाला ?

 

 

मैं भारत हूँ – जो लूँ अंगड़ाई तो हो जायें खड़े,

वे दीवाने फिर से लड़ने को,

उठे नया स्वातंत्र्य युद्ध फिर,

घमासान छिड़ जाये – मिट जाये, अस्तित्व तेरा ।

  

ध्वस्त कर दो संवेदनहीनता की दीवार ऐ शासक तू न कर भूल,

धिक्कार तेरा अंधत्व तुझे जो पीड़ा न  दिखती जन की,

द्वार तेरा फौलादी तो क्या…,

दीवार तेरी फिर भी ढह सकती, फौलाद तेरा फिर भी गल सकता  !

 

 

(यह कविता हाल ही में एक कवि सम्मेलन में प्रस्तुत करने पर पता चला कि देश की जनता परिवर्तन की प्रतीक्षा बड़ी ही बेसब्री से कर रही है … आइए कुछ सार्थक कदम मिल कर बढ़ाएं )

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