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ढह गई इमारत
दब गए – मर गए नाचीज़ लोग
झल्लाहट छा गई दिल्ली के दरबार में
उफ्फ, ये गरीब, करते बरबाद गुलाबी सर्दी हमारी !
कह दिया – धमका दिया जनता को
और अगले ही दिन हो गए
बेघरबार हजारों
कुछ और ढह सकने वाली इमारतों से ।
अब लेगें चैन की साँस
पीछा छूटा इन मुओं से
खुले आसमान के नीचे सोने वालों को
कोई इमारत देकर मुसीबतें क्यों बुलाएँ ?
जनता के पैसे से
जनता के वोटों से
खरीदी शालों को ओढ़
घूमता बेशर्म शासक ।
अहो परम पिता !
क्यों दे दी यह बेबस जिंदगी
कि हमारे हाथों की मेहनत से बनें उनके महल
और हमारी पगार इतनी कम ?
क्या करें अब हम
उठा लें जलती मशालें
और लगा दें आग इन रंगीन मिज़ाज लोगों को
बन जाएँ विद्रोही ?
या कि भर हुंकार
टूट पड़ें इन आदमखोरों पर
मिटा दें इनका अस्तित्व
पलट दें यह व्यवस्था ?
या फिर खड़े हो जाएँ इस बार
एक साथ
उठा दें आवाज़ इतनी
कि आसमान हो जाये मज़बूर !
बदल जाये अगली बार
मौसम, शासन, और ज़िंदगी
आ जाये हमारा अपना
संवेदनशील – लोकतंत्र !
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